Tuesday, November 29, 2011

पाकिस्तान पर अमेरिकी हमला- कारण और भविष्य

पाकिस्तान की मोहम्मद एजेंसी इलाके में अमेरिकी हमले मे 24  जवान शहीद हो गये। यह कोई आम हमला नही था और न ही ड्रोन या हेलिकाप्टर द्वारा चलाई गयी एक या दो मिसाइलो द्वारा किया गया हमला। यह हमला पाकिस्तान की दो चौकियों पर हुआ और तकरीबन दो घंटे चला।  पाकिस्तान में इस विषय को लेकर भारी गुस्सा है,  रैलिया निकल रही है।  दूसरी ओर पाकिस्तान की लीडरशिप इस मामले में कड़े बयान जारी कर रही है। बलूचिस्तान स्थित शम्सी एयर बेस को खाली करने का अल्टीमेटम दिया जा चुका है और नाटॊ की सप्लाई लाईन स्थगित कर दी है। दूसरी ओर अमेरिका सैनिको की मौत पर अफ़सोस जाहिर कर चुका है और घटना की जांच करने और नतीजा पाकिस्तानी अधिकारियों को बताने का आश्वासन दे रहा है।


वह बात जो दोनो पक्ष नही कह रहे हैं, वह यह है कि अमेरिका ने पाकिस्तान को बता दिया है कि वह क्या क्या करने से परहेज नही करेगा। दूसरी ओर पाकिस्तान भी अमेरिका को तेवर दिखा रहा है और मामला अब अमेरिका और पाकिस्तान के बीच टकराव की ओर जा रहा है। इस टकराव की वजह पाकिस्तान की वे नीतिया है जो उसने 9/11  को अमेरिका में हुये आतंकवादी हमले के बाद अपनाई थी। उस वक्त पाकिस्तान ने अमेरिका का साथ देने की बात कही।  लेकिन अंदर खाते उसने  अलकायदा और तालिबान को पनाह दी और उसे अमेरिका पर हमले मे मदद भी की। ऐसा इसलिये हुआ कि पाकिस्तान और अमेरिका के हित अलग थे, पाकिस्तान अफ़गानिस्तान में अपने नियत्रण वाली सरकार बनाना चाहता था। मकसद यह कि वह तालिबान को भारत के विरूद्ध जंग में उपयोग चाहता था। हम भारतीय विमान अपहरण और कंधार में जाकर आतंकवादियो को तालिबान के हवाले करने वाले मामले में देख ही चुके है। दूसरा मकसद अफ़गानिस्तान के अपने नियंत्रण मे होने से पाकिस्तान को डिफ़ेंस इन डेप्थ का फ़ायदा मिलता है।

वहीं अमेरिका अफ़गानिस्तान को आतंकवाद मुक्त और प्रगतीशील देश बनाना चाहता है, किसी भी सूरत में आतंकवाद की पनाहगाह बनने का खतरा वह दूसरी बार नही उठा सकता। दूसरी ओर मध्यपूर्व एशिया के पूर्व सोवियत देशो मे तेल का अथाह भंडार है। जिसे अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान के जरिये वह बिना रूस के हस्तक्षेप के बाजार में ला सकता है। तीसरी ओर चीन को घेरने के लिये भी उसे अफ़गानिस्तान पर अपने नियंत्रण वाली सरकार चाहिये।



इन हितो में टकराव पाकिस्तान की दोहरी नीतियो ने मामले को इतने साल उलझाय रखा और अमेरिका को अफ़गानिस्तान में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन अब हालात में परिवर्तन आ चुका है ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान मे मिलने के बाद अमेरिका पाकिस्तान की दोहरी चाल समझ गया। अभी तक तालीबान अपने यहा छुपे न होने या कबीलाई लोगो से दुश्मनी मोल न ले सकने के बहाने दे पाकिस्तान डालर भी लेता रहा और तालिबान को मदद भी करता रहा। लेकिन ओसामा केस के बाद अमेरिका ने पूरे मामले को पलट कर देखा तो उसे साफ़ समझ मे आ गया कि माजरा क्या है लेकिन तब नाटो की अस्सी फ़ीसदी सप्लाई पाकिस्तान से ही होकर आती थी।  सो उसने दो काम किये पहला अड़चनो का बहाना दे डालर देना बंद किया दूसरा नाटो का सप्लाई रूट उसने मध्यपूर्व एशिया से बना लिया। अब नाटो की चालीस फ़ीसदी से भी कम सप्लाई पाकिस्तान से आती है और उसने सात महिने का भंडार जमा कर लिया है। अब अमेरिका पाकिस्तान को बिना साथ लिये भी अफ़गानिस्तान का मसला हल कर सकता है।


अब अमेरिका के सामने कोई मजबूरी नही है इसलिये उसने तफ़्सील से इन चौकियों पर हमले किये और सुनिश्चित भी किया कि पाकिस्तान को ज्यादा से ज्यादा नुकसान हो। अब फ़ैसला पाकिस्तान को करना है या तो वो अफ़गानिस्तान का फ़ैसला अमेरिका के हिसाब से होने दे या लड़ाई की राह चुने। जाहिर है लड़ तो वो सकता नही मोलभाव जरूर कर सकता है। पर मोलभाव मे काम मे लिये जा सकने वाले सारे पत्ते उसने पहले ही खो दिये हैं। अब भाव कम मिलेगा और मोल ज्यादा चुकाना होगा। अगरचे वह अमेरिका का समर्थन चाह्ता है तो उसे चीन के खिलाफ़ बन रहे अंतराष्ट्रीय व्यूह मे शामिल होना होगा। ताकि अरब सागर से चीन की सप्लाई बंद हो जाये और इरान अलग थलग पड़ जाये। इसके लिये उसे भारत से कश्मीर पर समझौता भी करना होगा, भारत विरोधी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को बदलना होगा और अपने यहां से आपरेट कर रहे सभी आतंकवादी समूहो का खात्मा करना होगा।

बीच का रास्ता यह निकल सकता है कि पाकिस्तान भारत से संबंध न सुधारे पर अमेरिका के खिलाफ़ तालिबान को हमले करने से रोके। ऐसे में अफ़गानिस्तान के युद्ध मे काफ़ी पैसे लगा चुके भारत जो अफ़गान सरकार की मदद कर वहा अपनी जड़े जमा चुका है। उसे पाकिस्तान के इलाको खासकर बलूचिस्तान में दखल देने से पाकिस्तान नही रोक सकता। ऐसी सूरत मे विकल्प एक ही बचता है कि पाकिस्तान भारत से दुश्मनी छोड़े या नुकसान उठाये।


आखिरी और अंतिम विकल्प यह है की पाकिस्तान टकराव की राह पर चले। यह टकराव कितना हो यह देखना बाकी है, पर किसी न किसी स्टेज मे पाकिस्तान को चीन और युद्ध तथा अमेरिका और शांती के बीच चुनाव करना ही होगा, उसके विकल्प कम से कमतर होते जा रहे हैं। पहले विकल्प से भारत को कॊई फ़ायदा नही क्योंकि वह तो पहले ही इस अवश्यंभावी युद्ध में अपने को उलझा चुका है। मनमोहन सिंग के नेतृत्व वाली सरकार ने भारत के हित को अमेरिका के हित से मिला दिया है और भारत की मीडिया में प्रतिदिन दिखाये जा रहे चीन विरोधी समाचार इस युद्ध की पूर्व तैयारियां है।युद्ध टल भी गया तो इस राह मे चल होना ही है। जितनी देर से होगा भारतीय पैसे उतने अधिक अमेरिकी हथियारो को खरीदने मे  जाया हो चुके होंगे। पाकिस्तान यदि अमेरिका और शांती को चुन लेता है ’जिसकी संभावना बेहद क्षीण है’,  तो निश्चित ही भारत अपना पूरा ध्यान चीन पर लगा सकेगा।

Tuesday, November 22, 2011

पाकिस्तान- मेमो, ब्लैकबेरी, और साजिश




आज पाकिस्तान की फ़िजां फ़ौजी तख्ता पलट और साजिशो की आशंका से सहमी हुयी है। इस पूरे खेल की शुरूवात हुयी एक अमेरिकी अखबार में छपे एक मजमून से। जिसमे कहा गया था कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई आतंकवादियो से मिली हुयी है और अमेरिकी सेनाओ पर हुये हमले मे शामिल है। इस मजमून में यह भी कहा गया था कि आई एस आई को आतंकवादी संगंठन घोषित कर इस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिये। यह मजमून ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में पकड़े और मारे जाने के तुरंत बाद छपा था। इसे लिखने वाले थे मंसूर एजाज जो कि पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी हैं। ठीक इसी समय मंसूर एजाज ने अमेरिका के तत्कालीन सैन्य प्रमुख माईक मुलेन के पास एक मेमो पहुंचाया। जिसका सार यह था कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई तख्ता पलट कर सकते हैं।  और अभी सही वक्त है अमेरिका जरदारी की इन दोनो के पर कतरने मे मदद करे। ऐसा होने की सूरत मे राष्ट्रपति जरदारी सेना को अपने कब्जे मे ले लेंगे। पाकिस्तान मे छुपे सारे आतंकवादियों जिसमे मुल्ला उमर भी शामिल होगा को अमेरिका को सौंप दिया जायेगा। आगे यह भी वादा था कि अमेरिका के मनचाहे स्वरूप में पाकिस्तान के एटमी प्रोग्राम को ढाला जायेगा और यह सुनिश्चित किया जायेगा कि आतंकवादियो के हाथ वह न लगे। साथ ही मुंबई बम हमलो के आरोपी भारत को सौंप दिये जायेंगे।

इस मेमो में वह सब कुछ था जिसके आधार पर लेखक को पाकिस्तानी कानून के अनुसार देशद्रोही करार दिया जा सकता है और इस अपराध की सजा फ़ांसी के अलावा कुछ नही है। अमेरिका ने इस मेमो के मिलने की पुष्टि भी कर दी है। अब इन मंसूर एजाज साहब ने एक दूसरा मजमून लिखा जिसका सार यह था कि पहला मजमून और वह मेमो उन्होने ने अपनी मर्जी से नही लिखा बल्कि उनसे यह अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत हुसैन हक्कानी के कहने पर लिखा गया था। एजाज साहब इतने पर ही नही रूके अब वे गला फ़ाड़ फ़ाड़ कर यह दावे कर रहे हैं कि उनके पास इस बात के पुख्ता सबूत है और इससे भी आगे यह की हुसैन हक्कानी ने यह मेमो राष्ट्रपति आसिफ़ जरदारी की ओर से लिखवाया था और उनके पास एक नोट भी है जो राष्ट्र्पति भवन ने इस बाबत भेजा था। अपने सारे सबूत उन्होने आश्चर्यजनक तरीके से उसी आईएसआई को सौंप भी दिये, जिसे वे खुद अपने लेखों मे आतंकवादी करार दे चुके थे।

मंसूर एजाज साहब संदेहास्पद चरित्र के व्यक्ति है उनके आईएसआई, रा जैसी जासूसी संस्थाओं से संबंध रहे हैं और वे इसके पहले भी इस तरह की घपले बाजी में शामिल रहे हैं एक समय मुशरर्फ़ साहब और भारत के बीच उन्होने कश्मीर समस्या सुलझाने के लिये मध्यस्तता  करने का दावा किया था और उस समय वे बिना पासपोर्ट वीसा के कश्मीर मे हेलिकाप्टर से आये थे और सेना ने उनकी कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से बातचीत भी करवायी थी।

दूसरी ओर हुसैन हक्कानी साहब इस मेमो और लेख से किसी भी तरह का संबंध होने से साफ़ इंकार कर रहे हैं। उनका यह भी दावा है कि जब वे माईक मुलेन से लेकर ओबामा तक खुद मिल सकते हैं। तो ऐसे किसी संदेहास्पद चरित्र वाले व्यक्ती के जरिये वे ऐसा काम क्यों करेंगे। उन्होने अपना वह ब्लैकबेरी फ़ोन भी पेश कर दिया है, जिसके द्वारा मंसूर एजाज ने मैसेज भेजने और रिसीव करने की बात कही थी। साथ ही पाकिस्तानी मीडिया के सेना समर्थक धड़े द्वारा उनके पाकिस्तान न लौटने की खबरो को झुठलाते हुये वे पाकिस्तान लौट भी आये हैं।

इस पूरे मामले ने पहला विकेट भी ले लिया है हुसैन हक्कानी साहब ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया है, दूसरी ओर मंसूर एजाज साहब के दावे अब कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं तथ्यों की कसौटी पर उनकी बाते खरी नही उतर रही। लेकिन इस पूरे मामले मे फ़ायदा सेना का हुआ उन्हे लोकतंत्र समर्थक हुसैन हक्कानी का अमेरिका मे पाकिस्तान के राजदूत के पद पर रहना नही सुहाता था। और फ़ौज लंबे समय से उनको हटाने के लिये प्रयासरत थी। इमरान खान को भी इस मामले से राष्ट्रपति जरदारी को नीचा दिखाने का अवसर मिल गया। अब इस मामले मे हुसैन हक्कानी के पाकिस्तान लौट आने से सेना का मकसद पूरा हो चुका है। साथ ही उसने सिविलियन हुकूमत द्वारा विदेश नीति को निर्धारित करने के अधिकार को वापस पाने की कोशिशों को तगड़ा झटका भी दे दिया है। अब ऐसी बाते भी उभर रही हैं कि यह पूरा मामला पाकिस्तानी सेना की साजिश थी।


पाकिस्तानी सेना का अगला कदम क्या होगा,  यह तो अभी देखना है पर अमेरिका मे पाकिस्तान का अगला राजदूत अब फ़ौज की पसंद का होगा यह तय हो चुका है। पाकिस्तानी सेना अफ़गानिस्तान के भविष्य को अपने फ़ायदे के हिसाब से तय करना चाहती है। और आगे अमेरिका और पाकिस्तान मे टकराव बढ़ने वाला है, आशांकाओ के बादल पश्चिमी एशिया के आसमान में मंडरा रहे हैं। 

Friday, November 11, 2011

कश्मीर- सच, झूठ और अंतिम समाधान





कश्मीर एक ऐसा राज्य है जिसे कोई भी भारतीय या पाकिस्तानी आसानी से श्राप की संज्ञा दे सकता है। पर मामला यहां उल्टा है कश्मीर का नाम लेते ही दोनो देशों के नागरिकों की नसें तन जाती हैं। हिंदुस्तानी यह मानते हैं कि जब कश्मीर के राजा ने भारत से जुड़ना स्वीकार कर लिया तो कश्मीर भारत का अभिन्न अंग हो गया। पाकिस्तानी यह मानते हैं कि रियासतों के बटवारे में अलिखित समझ यह थी कि  हिंदू बहुल हैदराबाद भारत का भाग बन जायेगा और मुस्लिम बहुल कश्मीर पाकिस्तान का। पर बात अंतिम नही थी बटवारा होते होते अंग्रेजो ने कश्मीर और हैदराबाद को स्वतंत्र रियासत का दर्जा दे दिया,  मर्जी उनकी थी कि किससे जा मिले या स्वतंत्र रहें ।

 जारी रस्साकशी के बीच पाकिस्तान ने वो बेवकूफ़ी कर दी जो किसी भी समझदार मुल्क से अपेक्षित नही होती है। उसने कबाईलियों के भेष में अपने सैनिक वहां भेज हमला कर दिया। उस वक्त तक कश्मीर के महाराजा ने किसी से भी मिलने का फ़ैसला नही किया था और जाहिर है हिंदुस्तान को जब हैदराबाद अपने में शामिल करना होता तब पाकिस्तान उस अवसर को लीवरेज की तरह इस्तेमाल कर के कश्मीर को अपने में मिला सकता था। उस वक्त कश्मीर के महाराजा को हिंदुस्तान मदद नही करता।


इस हमले के बाद  कश्मीर के महाराजा ने भारत से मदद मांगी।  उधर इस्लाम के नाम पर जुटाये गये  हमलावर पाकिस्तानी सैनिकों ने  कश्मीर के इसाई चर्च और स्कूलों में जमकर लूटपाट और हत्या बलात्कार जैसी हरकतों की झड़ी लगा दी थी। इस हरकत ने माउंटबेटन को भी भड़का दिया सो उन्होने सीधे सीधे महाराजा कश्मीर को भारत में शामिल होने की शर्त लगा दी। मजबूरन महाराजा को शामिल होना पड़ा और युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में भारत जीत हासिल कर चुका था और उसने पाकिस्तानियों को पीछे ढकेलना शुरू कर दिया था। पर अब बेवकूफ़ी करने की बारी भारत की थी और नेहरू साहब ने संयुक्त राष्ट्र मे जाकर इस मुद्दे पर दखल की गुजारिश कर दी। उस पर तुर्रा यह कि उन्होने इसके बारे में सेना से न राय ली न ही उसे बताया। आम तौर पर युद्ध विराम के पहले सेना को सूचित किया जाता है ताकि वह सीमा पर अपने लिये सामरिक फ़ायदे की जगहों को चुन उन पर कब्जा कर ले। संयुक्त राष्ट्र ने जनमत संग्रह कराने का निर्णय लिया पर अब तक भारत अपनी गलती महसूस कर चुका था उसने तमाम शर्ते लगा दी और पाकिस्तान ने अगली बेवकूफ़ी की संयुक्त राष्ट्र का फ़ैसला यह था कि दोनो देशो की सेनाएं वहा से हट जायें और वहा निष्पक्ष मतदान हो पर पाकिस्तान अपनी सेनायें अनजाने डर से नही हटाईं और मामला टल गया। अब यह मामला पिछले चौसठ सालों से दोनो देशो के लिये नासूर बना हुआ है।

 तीन युद्धों और एक कारगिल के बाद भारत और पाकिस्तान ऐसे खेल में मशगूल हैं जिसका हल निकलता नजर नही आता। पाकिस्तान की जनता ने कश्मीर के लिये सैनिक तानाशाहों को भी सहा असंख्य कुर्बानियां भी दी और आतंकवाद का सांप भी पाला जो कि अब उनके ही गले पड़ गया है। भारत ने भी कम नुकसान नही उठाया है, पाकिस्तान के संभावित हमले से बचने के लिये और आतंकवादियों से निपटने के लिये और कश्मीर मे शांती बनाये रखने के लिये उसने असंख्य कुर्बानियां और अकूत दौलत खर्च की है। पाकिस्तान तो खैर तबाह ही हो चुका है दिवालिये पन की कगार में खड़ा होने के बावजूद उसकी सेना तकरीबन आधा बजट ले जाती है। दोनो देशो में ऐसे लोग हैं जो नारा लगाते हैं घांस खायेंगे पर कश्मीर के मामले पर समझौता नही का नारा लगाते हैं। जाहिर है घास तो गरीब जनता को ही खानी होती है,  नारा लगाने वाले तो वे लोग होते हैं जिनके पेट भरे हुये होते हैं।

समस्या यहीं तक सीमित नही है,  भारत और पाकिस्तान बदले का बदला चुकाते चुकाते एक दूसरे यहां ऐसी समस्याएं खड़ी करते जाते हैं जिनको खत्म करने मे दशकों लग जाते है और तब तक लाशों का अंबार लग चुका होता है। खालिस्तान हो या बलूचिस्तान कीमत आम आदमी को ही चुकानी होती है। इसके अलावा भी चीन और अमेरिका जैसे मुल्क और हथियारों के सौदागर इस लड़ाई में अपना उल्लू सीधा करते हैं।

कश्मीर में यथास्थिती बरकरार रहने में भारत का फ़ायदा है और गतिरोध टूटने में पाकिस्तान का। लेकिन इस गतिरोध के बने रहने का बिल लाखो डालर प्रति धंटे का है और यह बात भी तय है कि इस समस्या का समाधान हुये बिना भारत चीन से नही निपट सकता। आतंकवाद, नक्सलवाद आदि समस्याओं को खत्म नही किया जा सकता। और भारत के लिये जरूरी उर्जा की सप्लाई भी इस समस्या का समाधान होते ही सुरक्षित हो जायेगी। सवा अरब की आबादी वाले मुल्क के लिये जरूरी तेल और गैस इरान और पूर्व सोवियत संघ देशो से पाईपलाईन के जरिये भारत आने लगेगा।


इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है, जाहिर सी बात है कि समाधान के लिये दोनो ही मुल्कों को अपना कदम पीछे खींचना होगा और राह ऐसी तलाशनी होगी जिसमें दोनो ही देशों के नेता अपनी जनता और खास कर मीडिया को संतुष्ट भी कर सके।  क्यों न भारत कश्मीर से जम्मू और लद्दाख के हिस्से को अलग कर के अपने में शामिल कर ले। दूसरी ओर पाकिस्तान आजाद कश्मीर से North west frontier इलाके को अलग कर अपने में शामिल कर ले। अब बचा कश्मीर का वह इलाका जो कश्मीर की आजादी चाह रहा है इसमे से कुछ पाकिस्तान में शामिल होना चाहते है,  कुछ भारत में और अधिकांश लोग  अलग देश बनाना चाहते हैं। क्यों न इस इलाके को एक अलग रूप दिया जाये, जिसमे अपने हिस्सो पर कब्जा तो दोनो देशो का बरकरार रहे,  लेकिन इन हिस्सो के बीच अंतराष्ट्रीय सीमा केवल नाम की रहे। और इस हिस्से को बीस या तीस साल बाद जनमत संग्रह का अधिकार हो कि या तो वह दोनो में से किसी एक देश के साथ जुड़े या स्वतंत्रता ले ले। इस जनमत संग्रह मे दो तिहाई बहुत का मिलना आवश्यक शर्त हो। ऐसा न होने पर अगला जनमत संग्रह फ़िर निश्चित अंतराल में हो।

संभावित कदम के पहले भी दोनो देशो को  पानी, सुरक्षा और सड़क इन तीन मुद्दो पर काफ़ी काम करना होगा। तैयारी यही होगी कि क्श्मीर अलग हो जाये तब क्या या विरोधी के साथ चला जाये तब क्या। हालांकि कश्मीर के इस छोटे से हिस्से के अलग हो जाने से दोनो देशो को कोई खास रणनैतिक नुकसान नही होगा और दोनो ही देश अपने रक्षा बजट को बेहद कम कर सकेंग। इसके बाद दक्षिणी पश्चिमी एशिया में एक नई ताकत उभरेगी जो विश्व के सता संतुलन को प्रभावित कर सकेगी।


आपको अगर लगे कि यह हवा हवाई सोच है तो आपकी जानकारी के लिये अटल जी की सरकार और उसके बाद मनमोहन सिंग की सरकार इस विकल्प पर ही काम कर रही है। पिछले दरवाजे से इस समाधान के दांव पेंच पर चर्चा चल रही हैं। चीन को नियंत्रण में रखने को आतुर अमेरिका भी इसी समाधान पर जोर दे रहा है। लेकिन आशंका यही है कि पाकिस्तान की सेना जो भारत के हौव्वे को दिखाकर चौसठ सालो से ऐश कर रही है वह असानी से इस समाधान को अमली जामा पहनने नही देगी। चीन के भी सामरिक हित इस समझौते के खिलाफ़ है। ऐसा होते ही भारत चीन से मुकाबले को स्वतंत्र हो जायेगा और उसके बाद भारत से निपटना चीन के लिये टेढ़ी खीर होगा।



इस शतरंज की बिसात पर इमरान खान पाकिस्तानी फ़ौज का नया मोहरा है जो भारत और पाकिस्तान के संबंध निजी हितो के कारण मधुर होने देना नही चाहती। मनमोहन सिंग की सरकार की नाकामियां और भ्रष्टाचार भी इस पहल को दस साल दूर ढकेलने मे सक्षम हैं।  कांग्रेस को हराकर सता मे आयी नयी सरकार भी आसानी से नये विवाद को जन्म देना नही चाहेगी। आखिर सता अपने फ़ायदे के लिये पायी जाती है न कि देश के फ़ायदे के लिये।

Tuesday, November 1, 2011

इमरान खान - पाकिस्तान के अगले प्रधानमंत्री

                                         
 इमरान खान हांलाकि पाकिस्तान में लंबे समय से राजनीति कर रहे हैं। पर उनका अपना दल तहरीक ए इंसाफ़ कागजों पर ही रहा है। उनकी खुद की लोकप्रियता तो पाकिस्तान में बहुत ज्यादा है पर खुद के दल का जमीनी संगंठन ना होने के कारण वे अब तक इस लोकप्रियता को भुनाने मे असफ़ल रहे हैं। लेकिन अब हालात में तेजी से बदलाव आया है। आज इमरान खान पाकिस्तान में एक बड़ी राजनैतिक ताकत मे तब्दील हो चुके हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि इस तब्दीली में खुद इमरान खान का कोई हाथ नही है। आज पाकिस्तान की आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था चरमरा चुकी है। आतंकवाद ने पाकिस्तान के हालात बदतर कर दिये हैं, जनता सड़को पर आ चुकी है और व्यवस्था परिवर्तन चाहती है। लोग इस बदहाली के लिये जिम्मेदार शख्स की बली भी चाह रहे हैं। जिम्मेदार तो मुख्यतं पाकिस्तान की सेना ही है। उसने ही आतंकवाद और जेहाद को बढ़ावा दिया।  उसने ही अमेरिका को अफ़गानिस्तान में लाकर फ़साया और उसका अंजाम आज पाकिस्तान की जनता भुगत रही है।

बली का बकरा तो जाहिर है फ़ौज बनेगी नही, जब भी फ़ौज पर उंगली उठती है वह किसी न किसी घटना के सहारे मुल्क मे राष्ट्रवाद और देश भक्ति की लहर पैदा कर देती है। सो बली का बकरा पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ़ अली जरदारी ही बनेंगे। ऐसे में बात उनके विकल्प पर आती है और इस दौड़ में मियां नवाज शरीफ़ सबसे आगे हैं, उनका चुनाव जीतना लगभग तय ही था। पर मियां नवाज शरीफ़ से फ़ौज की दुश्मनी है। पिछली बार जनरल परवेज मुशर्रफ़ ने उनको बेदखल कर दिया था । ऐसे में नवाज शरीफ़ का एक सूत्रीय फ़ार्मूला फ़ौज की नकेल कसना और विदेश नीति मे उनके दखल को खत्म करना है।  मियां नवाज शरीफ़ का कहना है कि भारत से दुश्मनी पालने के कारण और हथियारों की होड़ के कारण ही पाकिस्तान की यह दुर्दशा हुयी है। साथ ही वे यह भी कहते हैं कि दाल मे कुछ काला जरूर है, वरना दुनिया खामखा आईएसआई पर आतंकवादियों का साथ देने का आरोप नही लगाती हैं।

अब फ़ौज भारत से दुश्मनी की नीती छोड़ नही सकती।  इस नीती के कारण ही तो उसे बेपनाह पैसा मिलता है और राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर वह किसी भी किस्म की जांच से दूर रहती है।  ऐसे में फ़ौज को  प्रधानमंत्री पद का विकल्प तलाशना था। ऐसे में इमरान खान इस के लिये सबसे योग्य आदमी थे। एक तो उनकी कोई जमीनी पकड़ नही है और वे आई एस आई के द्वारा उपलब्ध करवाये गये मुल्ला ब्रिगेड नेताओं पर ही निर्भर रहेंग।  दूसरे उनकी छवि पाकिस्तान में अच्छे और इमानदार आदमी के रूप में है । तीसरे उनके आने से फ़ौज अगले पांच सालो के लिये अपनी मनमानी करने को स्वतंत्र हो जायेगी।

इमरान खान के पास भी फ़ौज का आसरा लेने के अलावा कोई विकल्प नही है।  फ़ौज ही उन्हे उनकी पार्टी तैयार कर के दे रही है और धन भी मुहैय्या करा रही है।  इस चुनाव को जीतने के लिये ऐसा लगता है कि इमरान खान ने बाबा रामदेव से काफ़ी कुछ सीखा है। बाबा की ही तर्ज पर वे भी कालेधन को मुख्य मुद्दा बना चुके हैं, साथ ही स्वदेशी से लेकर दो % ट्रांसैक्शन टैक्स वाला बाबा का फ़ार्मूला भी अपना चुके हैं।  इमरान खान ने कश्मीर मुद्दे को भी छेड़ दिया है।  साथ ही वे  पाकिस्तान को अमेरिकी मदद नहीं चाहिये और वह पाकिस्तान् को गुलाम नही दोस्त की तरह देखें का नारा भी बुलंद करते हैं। पर यह सब भी नयी बाते नही है तकरीबन हर पाकिस्तानी नेता अमेरिकी मदद को ठुकराने की बाते करता है। मजे की बात तो यह है कि आज पाकिस्तान को अमेरिकी मदद मिल ही नही रही। अमेरिका ने मदद का एलान जरूर कर रखा है और देने से इंकार भी नही करता, पर देता कुछ नही पहले आतंकवाद के खात्मे की शर्त लगा देता है।

ऐसे में मुल्ला ब्रिगेड के कंधो पर सवार होकर इमरान खान प्रधानमंत्री बनते नजर आ रहे हैं उनकी सभाओं मे भारी जन सैलाब भी उमड़ रहा है। और फ़ौज ने इसके पहले भी इसी तरीके से नवाज शरीफ़ को प्रधानमंत्री बनाया भी था। पर बाद मे जन समर्थन हासिल करने के बाद नवाज शरीफ़ ने फ़ौज से पिंड छुड़ाने की सोची और आखिरकार खुद ही सत्ता से बेदखल कर दिये गये।


इमरान खान प्रधानमंत्री बन गये तो कुछ समय के लिये आतंकवाद मे कमी आ जायेगी क्योंकि आतंकी समूह तो सेना के इशारो मे ही काम करते हैं पर आर्थिक सुधार लाना इमरान खान के बस में नही होगा। फ़ौज उन्हे चुनाव जितवा जरूर सकती  है पर दो तिहायी बहुमत नही दिला सकती और उसके बिना संविधान में संशोधन नही किये जा सकते। बिना सुधारो के पाकिस्तान है जहां है वहीं बना रहेगा और उसका भविष्य बहुत कुछ अफ़गानिस्तान मे बनते हालातों पर निर्भर करेगा।

  पाकिस्तान के पिछले ट्रेक रिकार्ड को देखा जाये तो सेना के समर्थन से बने सारे प्रधानमंत्री अंत मे यह समझ जाते हैं कि सेना की नीतियों पर चल आखिर में बलि का बकरा ही बनना होता है। जाहिर है सफ़ल प्रधान मंत्री और लोकप्रिय सरकार लोकतंत्र को मजबूर करता है और तानाशाही की आदी रही सेना इसे कभी होने नही देती।

Sunday, October 23, 2011

पाकिस्तान- अपने बनाये जाल में फ़ंसा देश

आज पाकिस्तान उस पहेली का हल खोज रहा है, जो उसकी खुद की बनाई हुयी है। हिलेरी क्लिंटन ने अपने दौरे में मीडिया से बात करते हुये कहा- "अगर पाकिस्तान और अमेरिका ने मिलकर आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकानो को खत्म नही किया तो इसके अंजाम पाकिस्तान और अमेरिका दोनो के लिये ही बहुत खतरनाक होंगे"। जाहिर है यह एक कूट्नीतिक बयान था और बंद कमरो के पीछे पाकिस्तान को गंभीर अंजाम की चेतावनी दी गयी है। पाकिस्तान ने सोवियत संघ के अफ़गानिस्तान पर कब्जे और उसके बाद हुये जेहाद के वक्त से ही एक सोच अख्तियार कर ली थी कि अब अफ़गानिस्तान को अपना एक स्वायत्त राज्य बनाना है। इसके पीछे डिफ़ेंस इन डेप्थ की अवधारणा थी। भारत से हुये हर युद्ध में भारत पाकिस्तान के लगभग सभी ठिकानो पर हमला कर सकता था जबकि पाकिस्तान भारत के अंदर हमले की बहुत सीमित क्षमता था बंग्लादेश के अलग होने के बाद तो रही सही ताकत भी खत्म हो गयी और आगरा से आगे हमला करना उसके बूते से बाहर हो गया जाहिर है अब भारत अपने संसाधन देश की बाकी हिस्सों मे बना सकता था। अपनी इस कमजोरी को दूर करने के लिये पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान की ओर देखा।


अफ़गानिस्तान में सोवियत सेनाओं के चले जाने के बाद नजीबुल्ला की सरकार बनी। यह सरकार ठीक काम कर भी रही थी, पर यह सरकार पाकिस्तान की पिछलग्गू नही थी। जाहिर है जेहाद में पाकिस्तान ने नुकसान उठाया ही इसिलिये था कि उसे अफ़गानिस्तान पर नियंत्रण चाहिये था। पर अमेरिका ने सोवियत संघ के जाते ही पीठ फ़ेर ली,  उसे पाकिस्तान की रणनीति और समस्याओं से कुछ लेना देना भी नही था। अब पाकिस्तान ने तालिबान को नजीबुल्ला के खिलाफ़ युद्ध मे लगा दिया और काबुल पर तालीबान का कब्जा हो गया।  इस लड़ाई के लिये पैसा और लड़ाके अल कायदा ने इस्लाम के नाम पर ही दिये थे। अलकायदा  का अगला निशाना अमेरिका था और उसने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को तबाह कर दिया और  अमेरिका का दुश्मन नंबर वन बन गया। अब भी पाकिस्तान के पास मौका था वह ओसामा बिन लादेन को अमेरिका को सौप सकता था।  पाकिस्तान पर उन दिनो परमाणू परीक्षण के कारण प्रतिबंध लगे हुये थे और पाकिस्तान की कोई आवश्यकता न होने के कारण अमेरिका भारत की ओर मुड़ रहा था।  पाकिस्तान ने सोचा कि ऐसे में अगर अमेरिका अफ़गानिस्तान मे जंग मे उलझ जाता है तो निश्चित रूप से पाकिस्तान को पैसों और हथियार की  बड़ी इमदाद मिलनी शुरू हो जायेगी और जनरल मुशरर्फ़ की सैनिक सरकार को मान्यता भी मिल जायेगी।


यह बात साफ़ नही है कि उस समय पाकिस्तान ने इस पूरे अभियान की समाप्ति की क्या रूप रेखा सोची थी। अमेरिका की सोच भी उस समय तात्कालिक ही थी उसकी नाक दुनिया के सामने कटी हुयी थी और ओसामा बिन लादेन को मारना उसकी इज्जत का सवाल था। और पाकिस्तान ने भी सोचा होगा कि पानी सर के उपर चढ़ने के समय शीर्ष आतंकवादियो की बली चढ़ा दी जायेगी। पर इस पूरे मामले में पेंच आ गये और अमेरिका ने पाकिस्तान मे मौजूद ओसामा बिन लादेन को खोज लिया। उसके भी पहले अमेरिका यह भी जान चुका था कि पाकिस्तान दोगली चाल खेल रहा है। इसके अलावा भी जिस प्रकार से अमेरिका अफ़गानिस्तान में अपने स्थायी ठिकाने बना रहा है। उससे स्पष्ट है कि पूरी तरह से अफ़गानिस्तान छोड़ने की इसकी योजना नही है। अमेरिका ने अफ़गानिस्तान में भारत को भी एक मुख्य भूमिका सौपी है। आज अफ़गानिस्तान मे चल रहे अभियान को भारत बड़ी आर्थिक सहायता दे रहा है ऐसे मे जाहिर है पाकिस्तान की नींद उड़ चुकी है कहां वह भारत के खिलाफ़ अफ़गानिस्तान को अपना ठिकाना बनाना चाह रहा था और उल्टे भारत ही अफ़गानिस्तान मे आ धमका। ऐसे मे पाकिस्तान की स्थिती सांप छछूंदर सी हो गयी है। उस पर तुर्रा यह कि उसकी दोगली चालो की तर्ज पर अमेरिका ने भी तालिबान के एक धड़े तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान मे सुरक्षित ठिकाना दे दिया है और वहां से तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान पर कहर ढा रहा है।


अब पाकिस्तान का क्या होगा यह पाकिस्तान पर निर्भर नही है फ़िलहाल इसका निर्णय सिराज्जुद्दीन हक्कानी पर निर्भर करता है अमेरिका ने पाकिस्तान से साफ़ कर दिया है कि या तो हक्कानी समूह मुल्ला उमर का साथ छोड़ अमेरिका के साथ हो जाये या पाकिस्तान उसे तबाह कर दे। पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क पर हमला कर ही नही सकता क्योंकि ये हमला उत्तरी वजीरिस्तान के कबीलो को पाकिस्तान के साथ युद्ध में खड़ा कर देगा और पाकिस्तान यह खतरा नही उठा सकता। हक्कानी यह चाहेंगे कि अमेरिका अफ़गानिस्तान से जल्द से जल्द चला जाये और अफ़गानिस्तान पर उनका नियंत्रण हो जाये , पैसे या धमकी का असर उन पर पड़ने की संभावना कम है क्योंकि वे तो जान की बाजी लगा इस्लाम के नाम पर रहे हैं और अमेरिका अब तक उनके सामने कहजोर ही साबित हुआ है। पाकिस्तान चाह रहा है कि अफ़गानिस्तान मे उसकी पिछलग्गू सरकार बने। अमेरिका क्या चाहता है यह साफ़ नही,  पर इस युद्ध मे खरबो डालर उसने खर्च किये हैं तो किसी न किसी आर्थिक उद्देश्य को पूरा करने के लिये ही। पूर्व सोवियत देशो से तेल निकाल कर वह अपने नुकसान की भरपायी कर सकता है। साथ ही चीन के खिलाफ़ जेहादियों को भी समर्थन दिया जा सकता है। फ़िर लीबिया के बाद इरान का तेल भंडार अमेरिका का अगला निशाना तो है ही।

पर सबसे अहम बात होगी अफ़गान क्या चाह रहे हैं। अफ़गान कुछ चाहे न चाहें अर अब वे पाकिस्तान से बेइंतहा नफ़रत जरूर करते हैं। पाकिस्तान की नीतियों ने उन्हे तबाह कर के रख दिया है।  जब जब उनको शांती का अवसर मिलता है तो पाकिस्तान उस अवसर को बिगाड़ने में कोई कसर नही छोड़ता। ऐसे में अफ़गानो ने पाकिस्तान के बलोच विद्रोही नेताओं को अपने यहां बसने और पाकिस्तान पर हमले करने की छूट दे दी है। अब मामला पाकिस्तान के हाथ में तो नही है और भविष्य मे होने वाली घटनाएं हम पर भी गहरा असर डालेंगी।  सबसे बड़ी बात अफ़गानिस्तान मे शांती तभी हो सकती है जब कश्मीर का विवाद सुलझ जाये। जब तक यह विवाद नहीं सुलझेगा तब तक पाकिस्तान भारत को दुश्मन मानता रहेगा और अफ़गानिस्तान में किसी भी तरह का अमन आना मुश्किल है। खैर अमन आ भी जाये तो नफ़रत के बीज जो बोये गये हैं उनसे लंबे समय तक इस क्षेत्र में हिंसा होती ही रहेगी।

अगले लेख में कश्मीर का सच झूठ और भविष्य

Thursday, October 20, 2011

अच्छा तालिबान बुरा तालिबान

पाकिस्तान एक ऐसा मुल्क है जो एक ही संगठन तालिबान को दो निगाहों से देखता है। वहां की मीडिया मे अकसर अच्छा तालिबान और बुरा तालिबान लफ़्ज का इस्तेमाल होता है। अच्छे तालिबान से पाकिस्तानियों का आशय उस समूह से है जो भारत और अमेरिका के खिलाफ़ जेहाद करता है। बुरा तालिबान उसे कहा जाता है जो पाकिस्तान के सैनिक प्रतिष्ठानो पर हमले कर रहा है ।तालिबान संगंठन को अमेरिका और पाकिस्तान ने सोवियत फ़ौजो को बाहर खदेड़ने के लिये बनाया था। 

सोवियत सेनाओ के हटने के बाद अफ़गानिस्तान में तालिबान का शासन हो गया और पाकिस्तान ने जेहादियों का रूख भारत समेत दुनिया के अन्य देशो के विरूद्ध कर दिया। जाहिर है ऐसे में जेहाद विरोधी शक्तियों ने कुछ करना ही था सो तालिबान के विरूद्ध लड़ रहे अहमद शाह मसूद को सहायता दी जाने लगी। इसी बीच अलकायदा ने अमेरिका पर हमला कर इस क्षेत्र को एक बार फ़िर युद्ध का मैदान बना दिया।

अब अमेरिका मे यह आम राय बन सुकी है कि पाकिस्तान ने जानबूझ कर अमेरिका को अफ़गानिस्तान मे खींचा था और 9/11  के हमले में आईएसाई का या तो सीधा हांथ था या कह से कम वह इस से वाकिफ़ थी। पाकिस्तान मे ओसामा बिन लादेन के मिलने के बहुत पहले ही यह बात अमेरिका को समझ मे आ चुकी थी कि तालिबान को पाकिस्तान की मदद भी मिल रही है और छ्पने और ट्रेनिंग के लिये सुरक्षित ठिकाने भी और चूकी ऐसे ठिकाने ज्यादातर घनी रिहाईश वाले इलाके हैं अतः उनपर ड्रोन हमले करना भी आसान काम नही है। ऐसे में जब भी अमेरिका पाकिस्तान को इन ठिकानो की खुफ़िया सूचना देता पाकिस्तान उन ठिकानों मे मौजूद आतंकवादियों को वहा से हटने का संदेशा पहुंचा देता। रोज अपने सैनिको के शव उठाता और अपने साथ साथ पाकिस्तान का भी बिल भरता अमेरिका अब यह समझ गया था कि पाकिस्तान पर नकेल कसे बिना उसकी मुक्ती संभव नही। वहीं दूसरी ओर बगुला भगत बना पाकिस्तान आराम से अपने आका और पूरी दुनिया के काका याने अमेरिका की छीछालेदर होता निहार रहा था। जितने ज्यादा से ज्यादा दिन अमेरिका अफ़गानिस्तान में बना रहे पाकिस्तान का उतना ही फ़ायदा इसी मूलमंत्र के आधार पर तो उसने अमेरिका को फ़ंसाया था।


अमेरिका ने इस चाल का तोड़ ऐसे निकाला कि उसने पाकिस्तान के इलाके स्वात और बाजौर से लड़ रहे तालिबान के धड़े तहरीक ए तालीबान पर हमला करने के लिये उसने पाकिस्तान पर जबरदस्त दबाव डाला साथ ही पूरे आपरेशन का खर्चा उठाने और बेहतरीन हथियार उपलब्ध कराने का भी वादा किया। पैसों के लालच में पाकिस्तान जाल में फ़स गया,  उसने हमले शुरू कर दिये। जाहिर है नुकसान उठाने के बाद तहरीक ए तालीबन ने अपनी बंदूंको का मुह पाकिस्तान की ओर मोड़ दिया और दोनो मे लड़ाई छिड़ गयी। अमेरिका ने अगली चाल चली, तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान में सुरक्षित ठिकाने दे दिये  और उसके प्रभाव वाले इलाकॊं जैसे चित्राल आदि से अपने और अफ़गान दोनो  सैनिक हटा दिये। साथ ही पाकिस्तान से सप्लाई लाईन कट जाने के बाद तहरीक ए तालिबान को अफ़गानिस्तान से हथियार आदि मुहैय्या कराना शुरू कर दिया।


अब पाकिस्तान फ़स गया उसके सैनिक ठिकानो और आईएसआई के दफ़्तरों पर आत्मघाती हमले शुरू हो गये साथ ही दरगाहों और गैर सुन्नी मस्जिदों पर भी। पाकिस्तानी कैडर को जिहाद का पाठ पढ़ाना भी भारी पड़ा और पाकिस्तान मे पहले से ही कई समूह थे जिनका मकसद पूर्ण इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना था। पाकिस्तान के जमींदार व्यापारी नेता और अफ़सर जाहिर है कि इस्लाम को अपने रूप मे ही लेते हैं और यहां तक की पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कियानी खुले आम धूम्रपान आदी करते हैं। ऐसे में पाकिस्तानी सेना से तहरीक ए तालीबान को मदद मिलने लगी और उसके सैन्य प्रतिष्ठान हमलो का शिकार होने लगे हद तो तब हो गयी जब करांची के नौसैनिक हवाई अड्डे पर हमला कर जेहादियों ने पाकिस्तान के विमानों को ही उड़ा दिया उससे भी बड़ी बात कि इस हमले मे सेना के अफ़सर और जवान शामिल थे।


खैर अब अमेरिका से पाकिस्तान जब यह अनुरोध करता है कि बुरे तालिबान याने तहरीक ए तालिबान पर हमले करे। तो अमेरिका उससे कहता है कि पहले पाकिस्तान  अच्छे तालिबान याने की हक्कानी नेटवर्क और मुल्ला उमर पर हमले करे। जाहिर है कि पहले ही तहरीक ए तालिबान के कहर से पीड़ित पाकिस्तान अब हक्कानियों का कहर तो झेल नही सकत। सो उसका कहना अब यह है कि हक्कानी समूह पर हमला किये तो नही पर उन्हे बातचीत की टेबल पर लाया जा सकता है।  अमेरिका का यह सोचना है कि बिना हक्कानी समूह को कमजोर किये अगर बातचीत की जायेगी तो बातचीत का वैसा नतीजा नही निकलेगा जैसा अमेरिका चाहता है। फ़िर भी अभी पाकिस्तान,  अमेरिका और तालिबान में बातचीत चल रही है। बातचीत किस दिशा मे जा रही है यह तो नही कहा जा सकता है पर जिस तरह अमेरिका ने वजीरिस्तान सीमा को सील कर उसमे सेना को तैनात कर दिया है। और उधर पाकिस्तान "हमे आपके पैसे नही चाहिये",  "हम परमाणू शक्ती संपन्न देश हैं हमे अमेरिका हल्के मे न ले" ऐसे बयान दे रहा है।

अगले हफ़्ते अमेरिका के सभी विभागो के प्रमुख हिलेरी क्लिंटन के साथ आ रहे हैं। तब फ़ैसला होगा कि दोनो देशो का रूख आगे क्या होगा। भारत का हित तो इसी में है कि पाकिस्तान पर हमले किये जाये और तालीबान को जड़ मूल से खत्म कर दिया जाये। पर देखना यह है कि पाकिस्तान क्या अफ़गानिस्तान बनने की ओर अग्रसर होगा या फ़िर अपनी खुरापात छोड़ कर एक शरीफ़ मुल्क बनना चाहेगा। रास्ता कठिन है और पाकिस्तान की मुल्ला ब्रिगेड का रूख क्या रहता है उस पर निर्भर करता है।

शेष अगले लेख में

Sunday, October 16, 2011

पाकिस्तानी फ़ौज की रणनीति

आज अमेरिका में बूट्स आन ग्राउंड याने पाकिस्तान के नार्थ वजीरिस्तान और बलूचिस्तान पर हमले पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। यह हमला दो तरीको से हो सकता है। ड्रोन और मिसाईलो के जरिये हवाई हमले या इन इलाको को पाकिस्तान से अलग कर नया देश बनाना। मामला दूसरे विकल्प तक भी पहुंचना लगभग तय ही है। बलोचिस्तान में पहले ही पाकिस्तान से अलग होने की जद्दोजहद जारी है। वहां के कीमती खनिजो, तेल, गैस को पाकिस्तान दूसरे मुल्को को खास कर चीन को बेच रहा है।  जाहिर है अमेरिका इन खनिजो पर नजर गड़ाये हुये है।

 पाकिस्तानी सेना की मंशा इस समस्या को अपने हित में करने इस्तेमाल करने की ही रही है। हक्कानी नेटवर्क पर वह हमला कर ही नही सकता हां उसे अमेरिका के साथ बातचीत के लिये जरूर राजी कर सकता है। अभी उसने हालिया तनाव को घटाने के लिये ऐसा किया भी है। पर इस बातचीत का कोई नतीजा निकलना नही है, क्योंकि अमेरिका पाकिस्तान और हक्कानी नेटवर्क तीनो के अपने एजेंडे है।

अमेरिका चाहेगा कि हक्कानी अफ़गानिस्तान में कोई बड़ा पद और पैसे लेकर अमेरिकियों के पाले मे आ जाये। पाकिस्तान यह चाह रहा है कि अमेरिका पाकिस्तान के पिछ्लग्गू  धड़ो को सत्ता सौप आराम से घर चला जाय।  हक्कानी गुट अफ़गानिस्तान  में  इस्लामिक राष्ट्र की पुनः स्थापना करना चाहते है जिसके प्रमुख मुल्ला उमर हों। अमेरिका और हक्कानी एक चीज पर जरूर एकमत हो सकते हैं कि अफ़गानिस्तान को इन जेहादियों का स्वर्ग बना दिया जाये जो चीन के खिलाफ़ जेहाद कर रहे हैं इनमे उईगुर मुसलमान सबसे प्रमुख है। पर जाहिर है पाकिस्तान इस संभावना से बेहद डरा हुआ है। भारत के खिलाफ़ अपने साझा दोस्त चीन से पहले ही उसे इस विषय पर सख्त चेतावनी मिल चुकी है। इसलिये किसी न किसी स्टेज में वह इस वार्ता को सैबोटेज कर देगा,  जैसा कि इससे पहले भी कर चुका है।


इस वार्ता के टूटते ही पाकिस्तान के मीरान शाह और खैबर एजेंसी इलाके में स्थित हक्कानियों के ठिकाने पर अमेरिकी हमले होना तय है। जाहिर सी बात है कि इन हमलो मे बेगुनाह और मासूम भी मारे जायेंगे। आईएसआई इनमें मारे गये लोगो खासकर बच्चो की तस्वीरे पकिस्तान की गैरत ब्रिगेड से जुड़ी मीडिया को मुहैया करा देगी। पाकिस्तान में लोग सड़कों पर निकल आयेंगे, अमेरिका विरोधी लहर को परवान चढ़ने दिया जायेगा और इस्लामाबाद मे स्थित अमेरिका दूतावास पर हमले भी हो सकते हैं। अब आप सोचते होंगे कि जब इतना सब होना तय ही है तो आई एस आई इसे क्यो बढ़ावा देगी और पाकिस्तानी फ़ौज को इससे क्या फ़ायदा।

पाकिस्तान में आज ऐसे कई लोग है जो सुबह शाम दुआये कर रहे हैं कि अल्लाह करे कि अमेरिका हमला करे। जिन लोगो को इस हमलो का इंतजार है उनमे प्रमुख हैं इमरान खान और जनरल परवेज मुर्शरफ़। ऐसे घटना क्रमों के बाद जाहिर है कि सरकार के खिलाफ़ असंतोष फ़ैलेगा और जनता बली का बकरा तलाशेगी जाहिर है फ़ौज तो जिम्मेदारी नही लेगी और पाकिस्तान का मीडिया हर बार की तरह फ़ौज के इशारों में ही चलेगा और सरकार के खिलाफ़ कार्यक्रम प्रसारित होंगे फ़ौज आसिफ़ जरदारी की सरकार को भंग कर इमरान खान और परवेज मुर्शरफ़ की सरकार के लिये जमीन तैयार करेगी। मिया नवाज शरीफ़ जिनकी सरकार को पिछली बार फ़ौज ने भंग कर दिया था और जो पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के बाद पाकिस्तान की जनता के सबसे बड़े विकल्प हैं और जिन्होने मुल्क को फ़ौज के चंगुल से निकालने की कसमे खायी हुयी है और भारत के साथ अमन जिनके एजेंडे मे सबसे उपर हैं उनको किनारे लगाने के लिये यह सब घटनाक्रम तैयार किया जा रहा है।




इन हमलो से हक्कनी समूह को नुकसान तो होगा पर बहुत ज्यादा नही और चूंकि इस हमलो में पाकिस्तानी फ़ौज का हाथ नही होगा तो हक्कानी समूह अमेरिका से ही जंग में लगा रहेगा। और पाकिस्तानी फ़ौज के अफ़सर घटनाक्रम पर नजर रखते रहेंगे।  इस बीच अगले साल तक अमेरिका मे भी राष्ट्रपति चुनाव हो जायेंगे और वहा नयी सरकार आ जायेगी और पाकिस्तान मे भी।  अगले साल के बाद नयी सरकार अमेरिका से संबंधो मे सुधार लायेगी और तब तक  अफ़गानिस्तान  की जंग मे मे किस प्रकार का परिणाम निकलेगा उसका स्वरूप भी सामने आ जायेगा।



शेष अगले लेख में

Thursday, October 13, 2011

हक्कानी नेटवर्क - पाकिस्तान के सर पर लटकती तलवार

आज अमेरिका में पाकिस्तान संबधित नीतियो का निर्धारण करने वाले महत्वपूर्ण व्यक्तियों माईक मलेन, जनरल पेट्रायस, हिलेरी क्लिंटन, कैमरून मंटर ने एक सुर में पाकिस्तान पर हक्कानी नेटवर्क से सांठगांठ रखने का आरोप लगाना शुरू कर दिया है।  इस सांठगांठ को खत्म कर हक्कानी नेटवर्क को खत्म करने या गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी जा रही है। आज तक इन संबधो से इंकार करता आया पाकिस्तान अब खुलेआम पर कूटनीतिक शब्दो में यह कह रहा है कि हक्कानी समूह पाकिस्तान की सर जमीं के बेटे हैं। और अफ़गानिस्तान के भविष्य को तय करते समय हक्कानी समूह के हितो को अनदेखा नही करना चाहिये।  वह यह भी कह रहा है कि अफ़गानिस्तान की जंग शांती प्रक्रिया और बातचीत से खत्म होगी जंग से नही।


 इसके पहले भी अमेरिका पाकिस्तान मे स्थित हक्कानी नेटवर्क से वाकिफ़ था और हक्कानी लड़ाको को सोवियत संघ के खिलाफ़ लड़ने की ट्रेनिंग और हथियार सीआईए ने ही उपलब्ध करवाये थे। पर 9/11  के बाद अफ़गानिस्तान में अमेरिका के हमले के बाद वह मुल्ला उमर के साथ मिल अमेरिकी सेना के खिलाफ़ जंग में शामिल हो गया।  जलालुद्दीन हक्कानी अब अपना कार्यभार अपने बेटे सिराज्जुद्दीन हक्कानी को सौप चुके हैं। सिराज्जुद्दीन हक्कानी के नेत्रुत्व में हक्कानी नेटवर्क के अमेरिका के नाक में दम कर दिया है। हालिया काबुल के अमेरिकी दूतावास पर हुये हमले और जेलब्रेक समेत अनेक घटनाओं में अमेरिका को भारी जान माल क्षती हुयी है।


ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान मे आईएसआई की पनाहगाह में पाये जाने के बाद अमेरिका ने आई एस आई  आपरेटिव्स की जासूसी शुरू की तो यह सनसनीखेज सच सामने आया कि हक्कानी नेटवर्क के हमलो की सारी योजना आईएसआई  बना रही थी। काबुल में हुये हक्कानी नेटवर्क के हमलो की योजना भी न केवल आईएसआई ने बनाई थी बल्कि हमले के दौरान आत्मघाती हमलावरों से आईएसआई के वरिष्ठ अधिकारी  संपर्क में थे और उन्हे पल पल की वे सूचनाएं दे रहे थे जो कि उन्हे अमेरिका से प्राप्त हो रही थी।  इसके बाद जब पाकिस्तान को पेशावर के नजदीक सड़क मार्ग से जा रहे सिराज्जुद्दीन हक्कानी के बेटे नसीरुद्दीन हक्कानी को पकड़ने की सूचना अमेरिका ने पाकिस्तान को दी। तब पाक सेना के जनरल स्तर के अफ़सर उसे अपने साथ ले सुरक्षित ठिकाने तक पहुंचा आये, यह पूरी घटना अमेरिकी अधिकारी सैटेलाईट के माध्यम से देख रहे थे। इन सब घटनाओं का अमेरिका ने यह निष्कर्ष निकाला है कि पाकिस्तान अमेरिका को अफ़गानिस्तान में रोके रखना चाहता है। और उसके वहां से निकलने की सूरत दो ही शर्त पर संभव है। या तो पाकिस्तान अपनी हरकतों और दोगलेपन से बाज आये या अमेरिका अफ़गानिस्तान को तालिबान के हाथो सौप कर उसे पाकिस्तान के एक स्वायत्त राज्य की तरह बना दे।


दोनो ही सूरते अमेरिका को नामंजूर हैं,  अफ़गानिस्तान को न केवल वह मध्यपूर्व एशिया मे मौजूद पूर्व सोवियत देशो में स्थित तेल पर कब्जा जमाने के अपने बेस के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है बल्कि भविष्य मे 9/11 की तर्ज पर हो सकने वाले हमलों के लिये तालिबान को खुला भी नही छोड़ सकता है। ऐसे में एकमात्र विकल्प पाकिस्तान के उपर हमला ही बचता है।


दूसरी ओर पाकिस्तान भी फ़ंसा हुआ है, अफ़गानिस्तान पर कब्जा जमाने का उसका दशको पुराना सपना भी अब टूट चुका है। और अपनी दोगली चालो में फ़ंस वह तालिबान के एक हिस्से तहरीक ए तालिबान के कहर का शिकार भी हो रहा है। वहीं दूसरी ओर उसकी अर्थव्यवस्था बरबाद है और वह और उसकी फ़ौज अमेरिका के डालरों पर ही निर्भर है। ऐसे में हक्कानी नेटवर्क से संबंध तोड़ उसे खत्म करना ही आसान और कम खतरनाक विकल्प नजर आता है।


लेकिन इससे एक और विकराल समस्या खड़ी हो जायेगी। निश्चित तौर पर हक्कानी समूह पर हमला हक्कानियों की बंदूके पाकिस्तान की तरफ़ मोड़ देगा। हक्कानी समूह से आधी ताकत वाले तहरीक ए तालीबान ने जब पाकिस्तान की यह दुर्गती की हुयी है तो हक्कानियों का सामना करना पाकिस्तानी नेताओ और जनरलों को सपने में भी नजर नही आता है। यह इतना खतरनाक है कि इस्लाम की रक्षा की शपथ लेकर फ़ौज मे शामिल हुये सैनिक और अफ़सर जिनको खुद अमेरिका और पाकिस्तान ने जेहाद की ट्रेनिंग और ब्रेनवाशिंग की हुयी है और जो इस जंग में आज तक हक्कानी और मुल्ला उमर के साथ कंधे से कंधा मिलाकर इस्लाम के तथा्कथित दुश्मनों से लड़े हैं, आसानी से अपने ही आकाओं के खिलाफ़ हो सकते हैं। जिस देश का सैनिक संविधान की नही इस्लाम की रक्षा का हलफ़ उठा कर भर्ती हुआ हो वह इस्लाम के नाम पर ही देश के विमानो को उड़ाने मे भी नही हिचकिचाता। नागरिको और नेताओ के तो कहने क्या, सलमान तासीर की हत्या उनके बाडी गार्ड ने सिर्फ़ इसलिये कर दी थी कि उसके मौलवी ने फ़तवा जारी कर उसे कहा था कि सलमान तासीर अल्लाह की निंदा का दोषी है और उन्हे मारने पर बाडीगार्ड को अल्लाह जन्नत अता फ़रमायेंगे।


इस दोराहे पर खड़ा पाकिस्तान कौन सी राह अपना रहा है यह अगले लेख में।

Saturday, October 8, 2011

अफ़गानिस्तान - एक त्रिकोणीय़ पहेली


  अफ़गानिस्तान आजकल अंतरराष्ट्रीय मीडिया में छाया हुआ हैं। भारत में इस विषय पर कुछ खास चर्चा नही हो रही और जाहिर है सरकार भी अन्ना और बाबाओं के हाथों अपनी फ़जीहत से बचने में इतनी व्यस्त है कि इस मामले को गंभीरता से संभालेगी इस बात में शक ही नजर आता है।  अफ़गानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई साहब के हालिया  भारत  दौरे के मद्देनजर इस पूरे मामले को समझना इंतिहाई जरूरी और भारत के हितो के लिये महत्वपूर्ण भी है।

आज अमेरिका अफ़गानिस्तान से बाहर निकलने के दौर से गुजर रहा है और वह अफ़गानिस्तान से जीत कर निकलना चाहता है। जाते जाते अमेरिका यहां अपनी पिठ्ठू सरकार को  मजबूत कर जाना चाहता है। पाकिस्तान की यह कोशिश है कि अमेरिका के जाने के बाद अफ़गानिस्तान में उसकी पिठ्ठू सरकार बनें, जिससे उसकी रक्षा पंक्ति को गहराई भी मिल सके और वह तालिबान के लड़ाकों को  हिंदुस्तान के खिलाफ़  इस्तेमाल कर सके।  भारत का हित  कमोबेश अमेरिका के हित के साथ जुड़ा हुआ है।  भारत अफ़गानिस्तान में अपनी पसंद की सरकार बनवाना चाहता है,  ताकि पाकिस्तान उस मोर्चे पर उलझा रहे और भारत के खिलाफ़ तालिबान का इस्तेमाल न कर सके।

इसके अलावा भी बलूचिस्तान जैसे पाकिस्तान के हिस्सों ( जहां कश्मीर की तर्ज पर ही आजादी की जंग चल रही है और हालात कमोबेश कश्मीर से भी बदतर हैं ) के अलगाववादियों की भी भारत अफ़गानिस्तान के रास्ते से मदद कर सकता है। ब्लोच राष्ट्रवादियों को भारत  कश्मीर के विवाद को सुलझाने के लिये एक लीवरेज की तरह काम मे ला सकता है और उन्हे हथियार आदि देकर अपने यहां हुयी आतंकवादी वारदातों का बदला भी चुका सकता है।


इस पूरे मामले को समझने के लिये एक बेहद दिलचस्प पहलू यह भी है कि अमेरिका को अफ़गानिस्तान की जंग में पाकिस्तान ही खींच कर लाया था।  जब तक अमेरिका अफ़गानिस्तान में बना रहे तब तक ही पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद की गारंटी भी बनी  रहती है। पाकिस्तान का एक पुराना और बुरा अनुभव यह रहा कि सोवियत रूस के खिलाफ़ जंग में अमेरिका ने पाकिस्तान का इस्तेमाल किया उसकी धरती को जेहादियों का स्वर्ग बना दिया। सोवियत रूस के हट जाने के बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को न केवल उसके हाल पर छोड़ दिया बल्कि परमाणू बम के नाम से तमाम प्रतिबंध भी लगा दिये। इससे न केवल पाकिस्तान आर्थिक रूप से तबाह हो गया, बल्कि उसकी फ़ौज के सारे हथियार भी लगभग नकारा हो गये। क्योंकि उनके पुर्जो की सप्लाई भी अमेरिका से ही आनी थी, जिस पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।

ऐसे में 9/11  को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुये हमले के बाद जब अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन की तलाश शुरू की तो उसने पाकिस्तान से कहा कि मुल्ला उमर पर दबाव डाल करर ओसामा बिन लादेन को अमेरिका के हवाले करवा दे। आप को यह भी ध्यान होगा कि मुल्ला उमर की तालिबानी सरकार पूरी तरह से पाकिस्तान और अरब देशो की सहायता पर ही निर्भर थी और वह पाकिस्तान का कहा नही टाल सकती थी। पर इस वन टाईम डील में पाकिस्तान ने लंबी डील देखी और अमेरिका को फ़िर अफ़गानिस्तान मे फ़साने की ठानी। आईएसआई के मुखिया हामिद गुल अफ़गानिस्तान में मुल्ला उमर के पास अमेरिकियों का संदेश लेकर गये पर उनसे कहा- "कोई नई , ओसामा को बिल्कुल नही देना पहले सोवियत संघ को ठिकाने लगाया और अब इस अमेरिका को भी हम यही ठिकाने लगायेंगे"।

हुआ भी यही मुल्ला उमर ने मना कर दिया और अमेरिका ने पाकिस्तान को धमकी दी कि "आतंक के खिलाफ़ लड़ाई में या तो वह अमेरिका का साथ दे या परिणाम भुगतने को तैयार रहे।"  पाकिस्तान तो तैयार बैठा ही था नवाज शरीफ़ का तख्ता पलट चुके मुशर्रफ़ को अंतराष्ट्रीय मदद और मान्यता, फ़ौज को हथियार और देश को पैसा भी चाहिये ही था। और पाकिस्तान ने अमेरिका से "फ़्रैंड्स नाट मास्टर्स" का समझौता फ़िर कर लिया।फ़िर क्या था धड़ाधड़ पैसा और हथियार पाकिस्तान को मिलने लगे और अमेरिकी अफ़गानिस्तान भर मे ओसामा और मुल्ला उमर को खोजने लगे। पर ओसामा और मुल्ला उमर तो वहां थे ही नही। वे तो पाकिस्तान की गोदी मे बैठे हुये थे, वही पाकिस्तान जो "वार आन टेरर" में अमेरिका का सबसे पक्का दोस्त था। प्यादो को मारने पकड़ने का खेल चलता रहा और अमेरिका पाकिस्तान का बिल भरता रहा।

इसी समय पाकिस्तान ने पहली गलती की, अफ़गानिस्तान में लड़ रहे तालिबान के एक धड़े जो कि पाकिस्तान मे स्वात और बाजौर के इलाके से आपरेट कर रहे थे। रणनीतिक रूप से उन पर हमला करने में अक्षम होने के कारण अमेरिका ने स्वात और बाजौर में यह काम पाकिस्तानियों पर छोड़ दिया। तालिबान की यह इकाई मुल्ला उमर के नियंत्रण से बाहर भी थी। पहले यह तालिबान के धुर विरोधी अहमदशाह मसूद के समर्थन में लड़ चुकी थी। तालिबान के इस गुट पर हमला करना  पाकिस्तान को भारी पड़ गयी और तालिबान का यह हिस्सा आज तहरीक-ए-तालीबान बन कर पाकिस्तान पर कहर बरपा रहा है। पाकिस्तान के सैकिक प्रतिष्ठानों और हालिया करांची नौसेना के एयरबेस पर हुये हमलों मे तालिबान के इसी गुट का हाथ है।